जबरदस्त मौसम, गंगा का किनारा, ठण्डा पानी, और चारों ओर हिमालय के पर्वत….. अब इससे अधिक क्या व्यक्त कर सकता हूँ मैं पिछले सप्ताहांत पर की गई ॠषिकेश की यात्रा के बारे में? दरअसल असल योजना थी टुन्गनाथ मन्दिर जाने की जो कि चार दिन की यात्रा होती। पर साथ चलने वालों की कमी थी क्योंकि लोग-बाग़ अपने अपने दफ़तरों से दो दिन का अवकाश नहीं लेना चाहते थे। इस कारण यह मामला ठण्डे बस्ते में गया। फ़िर योजना बनी कोटद्वार के आगे स्थित लांसडाउन जाने की। इसमें मेरे तथा योजना बनाने में सहायक योगेश के अतिरिक्त मोन्टू तथा मोनिका शामिल थे। और लोगों से पूछा पर किसी ने कोई रूचि न दिखाई सिवाय स्निग्धा के, पर उनकी समस्या यह थी कि यदि कोई और लड़की जाती तो ही वे जाती, यही समस्या मोनिका की भी थी, परन्तु जब दोनों ही जाने को तैयार तो फ़िर क्या पंगा हो सकता है!! तो सब मामला तय रहा, बस गाड़ी वाले को बोलना और मंज़िल पर रहने का जुगाड़ करना बाकी था।

पर बैठे बिठाए पंगा हो ही जाता है!! गुरूवार की सुबह मोनिका ने बताया कि उनके आफ़िस में कुछ पंगा है और वो नहीं जा पाएँगी। अब इसका अर्थ यह था कि स्निग्धा भी नहीं जाएँगी, रह गए हम तीन भीड़ू लोग। इधर स्निग्धा ने जयपुर जाने का प्रस्ताव रखा। पर मेरा मन इतनी गर्मी में जयपुर जाने का नहीं था, और योगेश को इतनी बार जयपुर घूम आने के बाद कोई रूचि नहीं थी। तो स्निग्धा, मोन्टू तथा एकाध अन्य लोग जयपुर जाने के षडयन्त्र में पूर्ण रूप से सम्मिलित थे। 😉 मैंने सोच लिया था कि कोई जाए या न जाए, अपन तो अवश्य कहीं न कहीं जाएँगे, किसी के जाने न जाने से अपना रायता नहीं बिखरने देंगे। 😉 योगेश भी साथ देने को तैयार थे, सो हम दोनों ने ॠषिकेश जाने का निर्णय लिया। क्योंकि हम मात्र दो जन थे, इसलिए एक गाड़ी किराए पर लेना महंगा पड़ जाता और हमने तो सस्ती टिकाऊ सप्ताहांत यात्रा का आनंद लेना था, इसलिए हम लोगों ने बस द्वारा सफ़र करना था। पर वाह रे मनुष्य बुद्धि के खेल, यात्रा आरम्भ के दिन(शुक्रवार) सांय काल योगेश ने फ़ोन द्वारा बताया कि स्निग्धा, मोन्टू तथा उसकी एक मित्र हमारे साथ ॠषिकेश जाने की इच्छा रखते हैं। अब चूंकि बन्दे पर्याप्त हो गए थे, इसलिए हमने एक गाड़ी किराए पर लेने की सोच ली। योगेश और मोन्टू लग गए गाड़ी का जुगाड़ करने में पर उन्हें मारूति ओमनी से बड़ा कुछ नहीं मिला। योगेश बाबू ने हमसे बोला कि भई कुछ जुगाड़ करो। अपने को जुगाड़ में क्या दिक्कत, बस एक फोन घुमाया और आनन-फ़ानन गाड़ी मिल गई!! 😉 अब रात्रि 9 बजे निकलने का प्रोग्राम था पर पंगा फ़िर हो गया, गाड़ी को आते आते साढ़े 10 बज गए, खाना अभी खाया नहीं था। बहरहाल, फ़ौरन ही योगेश को लेने चल दिए, फ़िर स्निग्धा को लेते हुए मोन्टू और उसकी मित्र को लिया तथा अखिरकार अपनी यात्रा आरम्भ हो गई और अपन सुहावने मौसम में बढ़ चले गाज़ियाबाद, मेरठ, रूड़की, हरिद्वार होते हुए ॠषिकेश की ओर।

अब मज़े की बात यह है कि पंगे सही भी हो रहे थे और गलत भी। सही यह हुआ कि जो मौसम अभी तक गर्म था(जो कि ॠषिकेश में भी अपेक्षित था), वह यकायक ठण्डा हो गया, बादल घिर आए और थोड़ी बहुत बूँदा-बाँदी भी हो गई। अब कोई धार्मिक व्यक्ति होता तो इसे ईश्वर का चमत्कार मानता, कहता कि चूँकि वह एक नेक और पुण्यमयी यात्रा करने जा रहा है इसलिए ईश्वर ने उससे प्रसन्न हो मौसम अच्छा कर दिया है। पर अपन ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते इसलिए ऐसा हमने न सोचा। बहरहाल अपनी शेवरलेट टवेरा अंधेरी सड़क पर द्रुत गति से उड़ी जा रही थी और आरामदायक सीट पर मैं सोने का प्रयत्न कर रहा था क्योंकि पिछले 48 घंटों से एक झपकी भी न ली थी। पर जैसा कि कहते हैं कि भूखेपेट न भजन गोपाला, तो नींद भी कैसे आती?? मेरठ से कुछ पहले, सड़क किनारे, हम लोग चाय आदि के लिए रूके, वहीं पर एक पनीर के पराँठे और लस्सी से क्षुधा को शांत करने का प्रयत्न किया। चूँकि अभी बहुत सफ़र शेष था और सफ़र के दौरान पेट हल्का रखना चाहिए, इसलिए अधिक कुछ नहीं खाया। गाड़ी पुनः अपनी गति से उड़ चली और हरिद्वार होते हुए हम लगभग सुबह के चार बजे ॠषिकेश पहुँच गए।


परन्तु अब पंगा ठौर-ठिकाने का होने वाला था क्योंकि इस समय आसानी से होटल में जगह नहीं मिलती। पहले हमने वसुँधरा पैलेस नामक औसत होटल में पूछा, परन्तु एक डबल बेडरूम का किराया वो लगभग तीन हज़ार माँग रहे थे, सो हम एक अन्य होटल में गए। इस होटल की छत से बड़ा ही सुन्दर नज़ारा दिखाई दे रहा था गंगा का, किराया यहाँ भी अधिक ही था(लगभग दो हज़ार एक कमरे का), परन्तु इनके पास मात्र एक ही कमरा उपलब्ध था। समस्या हो गई थी। हम बाहर निकले और कुछ ही मीटर पर एक अतिथि निवास दिखाई दिया, ओंकारनाथ गीता भवन। सोचा कि चलो यहाँ पता कर लिया जाए, और अपनी तो बल्ले बल्ले हो गई, कमरे उपलब्ध थे, कदाचित् इसे तीसरे दर्जे का समझ यहाँ कोई आता नहीं था, हालांकि वह कहीं से तीसरे दर्जे का नहीं था। उन्होंने दो शयनकक्ष वाला एक सुईट भी हमें दिखाया जिसका किराया मात्र 1200 रूपये था और उसमें एक बरामदा भी था जिससे गंगा और दूसरे तट पर बने भवन आदि दिखाई पड़ते थे। हमने वह एक सुईट ही लेने का निर्णय लिया, एक गद्दा और डलवा लिया ताकि सभी के पास सोने के लिए बिस्तर हो जाए। यह अतिथि निवास बिलकुल गंगा तट पर था और इसके पृष्ठ भाग से सीढ़ियाँ नीचे गंगा की ओर जाती थी। दृष्य बहुत ही सुहावना था, मौसम उसको और जबरदस्त बना रहा था। मैं और योगेश तो तुरन्त ही छायाचित्र लेने में व्यस्त हो गए, अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। बाकी लोग भी सुईट में सामान रखवाने के बाद सीढ़ियाँ उतर हमारे पास ही आ गए। एकाध घंटे तक हम वहीं ठण्डी हवा, और सुहावने मौसम तथा दृष्य का आनंद और छायाचित्र लेते रहे। तत्पश्चात वापस अपने सुईट में आ गए और स्नान आदि से निवृत्त होने के बाद बाहर जाने का विचार बनाया, सभी को भूख लगी थी, चाहे बेशक मेरे अतिरिक्त सभी स्नान से पहले एक-एक चाय तथा बिस्कुट गड़प कर चुके थे। हमारे अतिथि निवास स्थान के घाट से कुछ आगे नौका विहार का घाट था, हम वहाँ पहुँचे और नौका में बैठ उस पार चल दिए। गंगा के इस ओर नज़ारा ही कुछ और था, वास्तविक जीवन तो यहाँ था, पिछले तट पर तो पर्यटकों के लिए होटल तथा दुकाने आदि ही थी। यहाँ सबसे पहले हम पहुँचे चोटीवाला रेस्तरां में, जहाँ हमने पेट पूजा करने का विचार बनाया। जो कुछ भी मंगाया, सभी वाहियात था, पर चुपचाप खा पी लिया, भूख में तो वैसे भी किवाड़ पापड़ लगते हैं!! 😉


उसके बाद हम लोग इधर उधर टहलने लगे और मैं छायाचित्र लेने लगा। योगेश बाबू ठहरे बड़े छायाचित्रकार, बढ़िया-कीमती विदेशी कैमरा(फ़िल्म वाला) ले घूम रहे थे और उच्च श्रेणी के एकाध छायाचित्र ही ले रहे थे। हम ठहरे 5 मेगापिक्सल वाले डिजिटल कैमरे और 512MB के मेमोरी कार्ड से लैस, उनके जितने काबिल नहीं, बस कैमरा भाँज लेते हैं। 🙂

राम झूले से होते हुए हम पहुँचे वापस अपनी ओर वाले तट पर और बाज़ार में निकल लिए। इन लोगों ने इस यात्रा का खजाँची मुझे बना दिया था, इसलिए सारे खर्चे-पानी का हिसाब मुझे रखना पड़ रहा था जबकि ये लोग मेरी ईमानदारी के कारण बेफ़िक्र हो मजे ले रहे थे। तो हम बाज़ार में घूमने लगे, दुकानों में सामान आदि देखा। लड़कियों ने कुछ खरीदा या नहीं, यह मुझे पता नहीं, मैं और योगेश आगे थोड़ा निकल गए थे और किताबें आदि देख रहे थे। वास्तव में किताबें तो योगेश बाबू ही देख रहे थे, या यूँ कहें कि किसी खास किताब को ढ़ूँढ़ रहे थे किसी को उपहार स्वरूप देने के लिए, मैं तो यूँ ही साथ हो लिया था!! 😉 चलते चलते टाँगे अब दुखने लगी थी, तीसरा दिन था मुझे नींद न लिए हुए और 6 घंटे गाड़ी में बैठे बैठे सफ़र अलग किया था, अब बस बहुत हो गया था। वापस जा ही रहे थे कि रास्ते में गीता प्रेस गोरखपुर की दुकान दिखाई पड़ गई। यह सनातन धर्म सम्बन्धित धार्मिक पुस्तकें आदि जैसे रामचरितमानस, श्रीमद् भगवद् गीता आदि प्रकाशित करते हैं और बहुत ही सस्ते दामों में बेचते हैं(कदाचित् इन्हें सरकार की ओर से कागज़ आदि पर छूट वगैरह भी मिलती है)। यहाँ पर स्वाति ने रामचरितमानस का बड़ा संस्करण लिया(जो कि संस्कृत और हिन्दी दोनों में ही है) तथा मैंने नौ उपनिशदों का सम्मिलित संस्करण लिया(जिसमें संस्कृत और हिन्दी दोनों हैं)। बहुत समय से सोच रहा था कि उपनिशद पढ़ के देखेंगे कि क्या लिखा है उसमें, अब ले तो लिया है, समय मिलने पर पढ़ना आरम्भ करूँगा। अब बस टाँगे जवाब देने को थीं, इसलिए बिना किसी विलम्ब के वापस लौट लिए और मैं स्नान के बाद सीधे बिस्तर की गोद में चला गया, बाकि लोग भी तुरन्त निद्रा के हवाले हो गए कि थोड़ी देर बाद, यह मुझे ज्ञात नहीं और न ही इतना होश था।

आगे का अनुभव अगले अंक में ….. 😉