पिछले सप्ताहांत, 29 और 30 सितंबर 2007, पर दिल्ली पर्यटन विभाग ने पंद्रहवें वार्षिक कुतुब उत्सव का आयोजन दिल्ली में कुतुब मीनार के पीछे मौजूद रामलीला मैदान में किया था। दो शाम के इस उत्सव में कुल पाँच संगीतमयी कार्यक्रम हुए और इसके पास (pass) सभी के लिए मुफ़्त में उपलब्ध थे। समय से इसके पास (pass) न प्राप्त कर पाने बावजूद भी मैं, योगेश और मदन इस आशा में शनिवार सांय तकरीबन छह बजे कुतुब मीनार पहुँच गए कि कदाचित्‌ द्वार पर ही कुछ जुगाड़ हो जाए। किस्मत ज़ोरों पर थी, द्वार पर दिल्ली पर्यटन के स्टॉल पर से एक पास (pass) मिल गया और उसी पर हम तीनों को अंदर जाने दिया गया, अंदर कोई खास जनता नहीं पहुँची थी(कदाचित्‌ भारत और ऑस्ट्रेलिया के क्रिकेट मैच के कारण) और हमको प्रैस वालों के लिए आरक्षित बीचो-बीच स्टेज के सामने मौजूद बढ़िया सीटें मिल गई। हमने सोचा था कि कदाचित्‌ कैमरे अंदर नहीं ले जाने दिए जाएँगे, इसलिए चांस नहीं लिया और कैमरे नहीं लाए, लेकिन वहाँ पहुँच दिल्ली पर्यटन विभाग के एक अधिकारी से पता चला कि कैमरे वर्जित नहीं हैं।

पहला कार्यक्रम प्रसिद्ध संगीत समूह सिल्करूट (silkroute) के मोहित चौहान का था। अब मोहित ने गाया तो ठीक लेकिन उसने यह ध्यान नहीं दिया कि माइक ठीक से सैट नहीं है और इसी कारण बास (bass) अधिक है जिससे उसकी आवाज़ उतनी अच्छी नहीं लग रही थी। खैर किसी तरह उसका कार्यक्रम समाप्त हुआ तो उस शाम के दूसरे और अंतिम कव्वाली कार्यक्रम को प्रस्तुत करने आए एहसान भारती घुंघरूवाला। एहसान साहब का परिचय देते हुए परिचारिका ने बताया कि उनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड (Guiness Book of World Records) में दर्ज है क्योंकि वे अपने मुँह से घुंघरुओं की आवाज़ निकाल सकते हैं। तकरीबन आधा घंटा एहसान साहब और उनके साथियों ने माइक को सैट करवाने में लगाया, उनको पता था कि माइक ठीक से सैट नहीं हैं और इस कारण कार्यक्रम का आनंद लोग नहीं उठा पाएँगे। बहरहाल, अब भीड़ थोड़ी अधिक हो गई थी, चौथाई सीटें जो खाली थीं वे तो भर ही गई थी, कुछेक लोग कुर्सियों के पीछे मौजूद घास पर भी बैठे थे। एक बार एहसान साहब का कार्यक्रम आरंभ हुआ तो बस मज़ा ही आ गया। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपने मुँह से एक घुंघरू से लेकर चौरासी घुंघरूओं तक की आवाज़ निकाल के दिखाई, लोगों की फरमाइश के गानों पर (मुँह से) घुंघरू बजा के सुनाए। फिर अंत में उन्होंने सूफ़ी गायन का रस भी दिलवाया और प्रसिद्ध “दमा दम मस्त कलंदर” को भी गाकर सुनाया। मन झूम उठा, यह कार्यक्रम इस शाम का एकलौता बढ़िया कार्यक्रम था जिसने पास (pass) न होने के बावजूद पैंतीस किलोमीटर आने और इतना ही वापस जाने के कष्ट को सार्थक बनाया। 🙂

इधर एक मज़ेदार बात यह हुई कि परिचारिका कई बार घोषणा कर चुकी थी कि मैदान के दूसरे भाग में विभिन्न राज्यों के पकवानों के स्टॉल लगे हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन जब योगेश ने जाकर देखा तो वहाँ सिर्फ़ पैटीज़ और नेसकैफ़े की चाय मिल रही थी!! कदाचित्‌ परिचारिका के लिए यही पकवान होंगे या फिर हो सकता है कि सरकारी बाबुओं ने पकवान गलती से वहाँ भिजवाने के स्थान पर अपने घरों में भिजवा दिए होंगे!! 😉 इधर कुछ लड़कों पर बारंबार क्रोध भी आया जो कि हमारे पीछे की पंक्ति में बैठे खामखा बीच-२ में बेकार का हल्ला (cat calling, booing) मचा रहे थे, मोहित चौहान के कार्यक्रम के दौरान मचा लिए तो ठीक लेकिन एहसान साहब के कव्वाली गायन के दौरान भी हल्ला कर रहे थे। या तो ये कुछ और ही अपेक्षा के साथ आए थे कि कुछ रंगारंग कार्यक्रम होगा या फिर टाइमपास के लिए आए थे, कुछ भी हो, मन कर रहा था कि उन सबका सिर फोड़ दिया जाए, खामखा दूसरों के रंग में भंग कर रहे थे!! उस समय दिल्ली पर्यटन विभाग वालों को कोसा कि उनको प्रवेश निशुल्क रखने की जगह कुछ मामूली सा शुल्क लगा देना चाहिए था, जैसे कि पचास रूपए प्रति पास (pass), एक पास (pass) पर चार-पाँच लोगों का प्रवेश, जिससे यह लाभ होता कि ऐरे गैरे लोग जिनको कार्यक्रम नहीं देखने थे वे नहीं आते, क्योंकि इंसानी फितरत है फ्री का माल देख ऐरे गैरे भी आ ही जाते हैं!! वैसे भी इस तरह के कार्यक्रम देखने आने वाले लगभग सभी लोग इनको देखने के लिए चालीस-पचास रूपए प्रति पास (pass) दे ही देते क्योंकि पैसे देकर इनको देखने वही जाते हैं जिनको वास्तव में रूचि है।

अगले दिन के लिए हमारे पास कोई पास (pass) न होने के बावजूद हमने फिर अपनी किस्मत आज़माने की सोची, उसी पास (pass) को अपने पास रख लिया और अगले दिन तो वैसे भी कैमरे और ट्रायपॉड (tripod) वगैरह के साथ आना था!! 😉

अगले दिन कदरन अधिक भीड़ थी क्योंकि रविवार था, आखिरी दिन था, तीन कार्यक्रम थे और मैच भी नहीं था। हम लोग सवा छह बजे तक पहुँचे तब तक काफ़ी भीड़ हो चुकी थी। ट्रायपॉड तो हाथ में लिए ही थे, योगेश ने कहा कि मैं अपना कैमरा भी बाहर निकाल गले में टाँग लूँ ताकि द्वार पर मौजूद गार्ड को भ्रम हो जाए, लेकिन उसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी, उसने पास (pass) माँगा नहीं हमने दिखाया नहीं!! 😉 अंदर पहुँचे तो देखा कि लगभग सभी सीट भर चुकी थी, हम पुनः प्रैस के लिए आरक्षित स्थान पर पहुँच गए, पीछे की एक पंक्ति में कुछ सीटें खाली दिखी तो वहाँ जम गए, ट्रायपॉड को उसके कवर से बाहर निकाल सैट किया और कैमरा निकाल उसपर लगाया। टीवी चैनल वाले हमारे आगे वाली पंक्ति में ही मौजूद थे, उन्होंने हमको भी प्रैस वाला ही समझा और एक कैमरामैन ने मुझे सुझाव दिया कि मैं उसके बाजू में ही ट्रायपॉड लगा लूँ क्योंकि थोड़ी देर बाद मेरे आगे कोई अन्य चैनल वाला आ गया तो मेरे को फोटो नहीं मिलेंगे। लेकिन उसके बगल में बैठी महिला को मैंने उनकी जगह से प्रैस के नाम की हूल देकर उठाना उचित न समझा, योगेश को कुछ पंक्तियाँ आगे दो कुर्सियाँ खाली दिखाई दीं तो अपन ने वो लपक लीं। पीछे बैठे लोगों को मेरे ट्रायपॉड से देखने में कष्ट न हो इसलिए मैंने थोड़ा साइड में ट्रायपॉड लगाया, कोने की सीट होने का फायदा मिल गया।

रविवार सांय पहला कार्यक्रम सुगातो भादुड़ी का था जिन्होंने तबले के साथ संगत कर मैन्डोलिन का संगीत सुनाया। स्टेज के आगे और कुर्सियों की सीमारेखा तक की पूरी कि पूरी भूमि हरे कालीन से ढकी हुई थी, मैं प्रथम पंक्ति के आगे अपना ट्रायपॉड लेकर स्टेज के सामने पहुँच गया ताकि एकाध अच्छा फोटो मिल जाए, वैसे तो जहाँ हम लोगों की सीट थी वहाँ से भी कैमरे के पूरे ज़ूम पर मैं आराम से फोटो ले सकता था लेकिन पास की फोटो फिर पास की होती है!! 😉

मैन्डोलिन बजाते हुए सुगातो ठ??दुड़ी
( मैन्डोलिन बजाते हुए सुगातो भादुड़ी )

इधर मैंने अभी कुछ तस्वीरें ही ली थीं कि योगेश का फोन आ गया कि जल्दी वापस आऊँ। तो अपना ट्रायपॉड और कैमरा ले मैं वापस पहुँचा तो योगेश ने बताया कि अभी कुछ मिनट पहले पंगा हो गया था, कुछ पीछे की लगभग पूरी पंक्ति में चैनल वालों ने अपने-२ ट्रायपॉड खोल उनपर वीडियो कैमरे लगा रखे थे जिस कारण उनके पीछे बैठे लोगों को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था और इसी बात को लेकर एक दर्शक एक कैमरामैन से उलझ पड़ा था। दर्शक सही थे कि उनको कुछ दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन गलती चैनल वालों की भी नहीं थी, उन्होंने तो उसी स्थान पर कैमरे लगाए थे जो उनके लिए आरक्षित था, यह तो दर्शक खामखा वहाँ बैठे हुए थे। देखा जाए तो गलती दिल्ली पर्यटन वालों की थी, उनको सबसे पीछे एक कदरन उँचा सा स्टेज बना देना चाहिए था मीडिया के लिए ताकि वे किसी दर्शक के आगे न आएँ।

खैर सुगातो जी का कार्यक्रम समाप्त हुआ और बोर करने के लिए ज़ी टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम हीरो होन्डा सा रे गा मा पा के 2005 के फाइनलिस्ट अर्पिता मुखर्जी और हेमचंद्र स्टेज पर पधारे। इधर अर्पिता से सुर नहीं खींचा जा रहा था, बारंबार कोशिश करती लेकिन आवाज़ फटती महसूस कर छोड़ देती थी तो दूसरी ओर हेमचंद्र गायकी पर कम और टशन मारने पर अधिक ध्यान दे रहा था जिस कारण दोनों में से कोई काम ठीक से नहीं कर पा रहा था। 😉 पूरे डेढ़ घंटे दोनों ने, एक-२ करके भी और साथ में भी, वाहियात गायन से पका दिया, उठकर जाने की बहुत बार सोची कि कहीं टहल आते हैं जब तक ये बेसुरे अपना आइटम समाप्त करते हैं, लेकिन नेता और सरकारी बाबू की तरह हमको भी कुर्सी छिन जाने का खतरा था इसलिए कहीं नहीं गए, यदि ओबीसी की तरह आरक्षण मिला हुआ होता तो आराम से कहीं टहल आते!! 😉 मुझे यह सोच बार-२ आश्चर्य हो रहा था कि ये दोनों फाइनल राउंड में कैसे पहुँचे थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि दो-ढ़ाई वर्ष पहले तक जब सा रे गा मा पा मेरे पिताजी देखते थे तो मैं भी देख लेता था और फाइनल क्या आखिर के सभी राउंडों में पहुँचने वाले प्रतियोगी एक से बढ़कर एक गायक हुआ करते थे!! लगता है कि या तो इनकी किस्मत तेज़ थी या फिर सा रे गा मा पा भी इंडियन आईडल आदि की भांति फटीचर प्रतियोगिता हो गई है जिसमें कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू खैरा फाइनल राउंड तक पहुँच जाता है!!

बहरहाल, किसी तरह इन दोनों द्वारा किया जा रहा टॉर्चर समाप्त हुआ तो इस वर्ष के कुतुब उत्सव का अंतिम कार्यक्रम आरंभ हुआ जिसका हमें ही नहीं वरन्‌ उपस्थित जनता को भी बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था, भीड़ अब काफ़ी बढ़ गई थी, जितने लोग बैठे थे उससे अधिक सीट न मिल पाने के कारण खड़े थे और किस्मत वाले थे वे जो थोड़ा पहले आकर स्टेज और कुर्सियों की प्रथम पंक्ति के दरमयान खाली जगह पर कालीन पर ही आराम से बैठ गए थे। उत्सव के इस कार्यक्रम को पेश करने पाकिस्तान से तशरीफ़ लाए थे अपने भाई उस्ताद शराफ़त अली खान और अपने भतीजे शुजौत अली खान के साथ उस्ताद शफ़कत अली खान। उस्ताद शफ़कत अली खान का परिचय देते हुए (पिछले दिन से भिन्न) परिचारिका ने बताया कि उस्ताद शफ़कत अली खान के पुर्खे सम्राट अक़बर के दरबार में संगीतज्ञ थे और उस्ताद शफ़कत अली खान उनकी ग्यारवीं पीढ़ी के हैं तथा अधिकतर ख्याल और ठुमरी ही बजाते हैं।

बाएँ - उस्ताद शफ़कत अली खान, दाएँ - उस्ताद शराफ़त अली खान
( उस्ताद शफ़कत अली खान [बाएँ] और उस्ताद शराफ़त अली खान [दाएँ] )

उस्ताद शफ़कत अली खान ने शुरुआत सुर लगा के की, फिर अलग-२ गायकी बताई, कि भारत और पाकिस्तान में कैसे गाया जाता है, अफ़्गानिस्तान में कैसे गाया जाता है और ईरान तथा मध्य-पूर्व में कैसे झोल देकर गाया जाता है। उन्होंने अपना कार्यक्रम शुरु होने से पहले ही दर्शकों से गुज़ारिश कर दी थी कि एकाग्रता की आवश्यकता है इसलिए लोग-बाग़ खामोश रह गायन का आनंद लें और कोई हैरानी नहीं थी कि उनके गायन के दौरान लगभग खामोशी ही थी, बस बीच-२ में किसी अच्छे शेर के गायन पर तालियाँ बज उठती थीं। उस्ताद शफ़कत अली खान आदि द्वारा गाए गये एक गीत का लगभग संपूर्ण वीडियो यहाँ देखा जा सकता है

उस्ताद शफ़कत अली खान के कार्यक्रम के दौरान ही मुझे पीछे दिखाई देती कुतुब मीनार के साथ एक पैनोरमा (panorama) लेने का विचार आया तो ट्रायपॉड पर लगे कैमरे को दाएँ से बाएँ घुमाते हुए पाँच फोटो ले डाली जिनसे यह निम्न पैनोरमा बना।


( इस फोटो को बड़े रूप में देखने के लिए यहाँ क्लिक करें )

पहले पैनोरमा के हिसाब से तो ठीक-ठाक ही बन गया, वैसे ये पैनोरमा कम और किसी एसएलआर (SLR) कैमरे से लिया गया वाइड एंगल फोटो अधिक लगता है!! 😉

बहरहाल, उस्ताद शफ़कत अली खान का कार्यक्रम भी समाप्त हुआ और अपन अगले वर्ष के कुतुब उत्सव के बारे में सोचते हुए वापस लौट लिए। कुतुब उत्सव के अन्य फोटो यहाँ देखिए