अभी कुछ दिन पहले हल्ला सुना एक फिल्म के बारे में, नाम स्लमडॉग मिलियनेयर (Slumdog Millionaire)। यह एक फिल्म है जो कि एक अंग्रेज़ ने बनाई है कि कैसे एक स्लम में पला बड़ा हुआ लड़का एक “कौन बनेगा करोड़पति” टाइप के कार्यक्रम में जीत की कगार पर पहुँच जाता है और सब उसकी इस उपलब्धि से सन्न रह जाते हैं। जिन लोगों ने फिल्म देख ली उनसे सुनने/पढ़ने में आया कि फिल्म बहुत ही धांसू है, फिल्म ने अवार्ड वगैरह भी जीत लिया!! आने वाले शुक्रवार, 23 जनवरी को यह फिल्म भारत में “स्लमडॉग करोड़पति” के नाम से हिन्दी में रिलीज़ हो रही है। मैं भी सोच रहा था कि शायद मैं भी देख आऊँगा सिनेमा पर क्योंकि मैं भी उन लोगों में हूँ जिन्होंने इंटरनेट से पॉयरेटिड कॉपी डाउनलोड कर नहीं देखी है और सिनेमा में देखने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं प्रतीक्षा नहीं कर रहा, मूड हुआ तो देख आएँगे और यदि जानने वालों से खास समीक्षा नहीं मिली तो नहीं देखेंगे, कोई बड़ी बात नहीं है!!

अब हुआ यूँ कि इस फिल्म पर श्री अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर लिखा (इस फिल्म पर लिखी पंक्तियों का अनुमानित अनुवाद दे रहा हूँ, अंग्रेज़ी में लिखी असल पंक्तियों के लिए आप श्री अमिताभ की ब्लॉग पोस्ट पढ़ सकते हैं)

यदि स्लमडॉग मिलियनेयर एक प्रयास है भारत को एक तीसरी श्रेणी का विकसित हो रहा मुल्क बता उसका गंदा पिछवाड़ा दिखाने का और भारतीय देशभक्तों को पीड़ा पहुँचाने का तो यह ज्ञात होना चाहिए कि यह गंदा पिछवाड़ा सबसे अधिक विकसित देशों में भी है।

इस बात से ज़ाहिर है कुछ लोगों का कुछ हिल गया, और उनमें से एक हैं कोई निरपल धालीवाल (Nirpal Dhaliwal) जिन्होंने ब्रिटिश अख़बार गार्जियन (Guardian) में अमिताभ बच्चन को बिन दिमाग का बताते हुए लिखा कि अमिताभ बच्चन ने भी अपनी दो कौड़ी की राय इस फिल्म के बारे में दे डाली। धालीवाल के अनुसार बॉलीवुड में मौजूद अन्य प्रतिभा विहीन लोगों की ही भांति अमिताभ बच्चन भी इस बात से गुस्से में जल उठे हैं कि हालिया समय में भारत पर बनने वाली सबसे बेहतरीन फिल्म को एक गोरे फिरंगी ने बनाया है, एक ब्रिटिश ने बनाया है!! उनके मुताबिक बहुत से भारतीय इस बात से नाराज़ होंगे कि एक पश्चिमी समाज के व्यक्ति को भारत की भारतीयों से अधिक जानकारी है!! और फिर आगे ये धालीवाल साहब अमिताभ बच्चन और उनकी हालिया पश्चिमी सिनेमा की फिल्म द लास्ट लीयर (The Last Lear) पर आते हुए अमिताभ बच्चन के असफ़ल और टुच्चे अभिनय पर प्रकाश डालते हैं। ऐसा लगता है कि अमिताभ बच्चन को कोसने के लिए ही पूरा लेख लिखा गया हो। मैंने वह फिल्म नहीं देखी इसलिए मेरी उस पर कोई राय नहीं है।

लेकिन कोई उन धालीवाल को बताए कि मियां जिस तरह मूर्खता किसी की बपौती नहीं उस तरह जानकारी तथा ज्ञान भी किसी की बपौती नहीं। किसी ग्रन्थ में नहीं लिखा है कि कोई विदेशी भारत को भारतीयों से अधिक नहीं जान सकता!! आम भारतीय को तो पड़ोसी के घर का भी नहीं पता होता कि वहाँ क्या हो रहा है; हाँ मल्लिका शेरावत आदि के बारे में पता हो सकता है कि वहाँ क्या हो रहा है। भई आम आदमी आम होता है, मेहनत करता है और अपना परिवार चलाता है, नून तेल लकड़ी में लगा रहता है।

धालीवाल महोदय के अनुसार अस्सी प्रतिशत भारतीय सौ रूपए से कम दिहाड़ी कमाते हैं और चालीस प्रतिशत पचास रूपए से कम दिहाड़ी पाते हैं। दुनिया के सबसे गरीब लोगों में एक तिहाई भारतीय हैं, मुम्बई में छब्बीस लाख बच्चे सड़कों या स्लम में रहते हैं और चार लाख वेश्यावृत्ति में लिप्त हैं। लेकिन धालीवाल के अनुसार ये लोग मुख्यधारा बॉलीवुड से गधे के सिर के सींगों की भांति गायब हैं।

च च च!! तरस आता है धालीवाल पर और उनकी बुद्धि पर। कदाचित्‌ वे समझते हैं कि वे बेहतर फिल्में बना सकते हैं और अमिताभ बच्चन से अक्ल और अभिनय प्रतिभा में बीस हैं। हो सकता है कि ऐसा हो, कोई बड़ी बात नहीं है, हर सेर के लिए सवा सेर होता ही है। पर मैं तो धालीवाल की ओर से यह शुक्र मना सकता हूँ कि वे फिल्में नहीं बनाते। यदि धालीवाल फिल्में बनाने के धंधे में होते तो कंगले हुए पड़े होते और डॉन लोग अपने पैसे की उगाही के लिए इनके पीछे पड़े होते (वे फिल्में फाईनेन्स करते हैं ना, नहीं?) क्योंकि इनकी बनाई फिल्में फ्लॉप ही होती!! कदाचित्‌ धालीवाल साहब यह नहीं जानते कि फिल्म बनाना एक धंधा है, किसी भी अन्य धंधे की भांति। फिल्म बनाने वाले भी अपनी बनाई फिल्म से मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं पैसा कमाना चाहते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह धालीवाल एक फालतू लेख लिख के कमा रहे हैं।

बॉलीवुड आदि की फिल्में सिनेमा में देखने सिर्फ़ वही सौ रूपए से भी कम रोज़ाना कमाने वाले लोग नहीं जाते। जो जाते हैं वो अपनी ही हालत फिल्म में क्यों देखेंगे पैसा खर्च करके? ये सब तो वो फ्री फोकट में रोज़ाना अपने आसपास अपने मोहल्ले में देखते ही हैं, यह उनके जीवन की कहानी है, तो उसको पर्दे पर नकली रूप में देखने के लिए वो वह पैसा क्यों खर्चेंगे जिससे वो एक-दो वक्त का खाना खा सकते हैं या नारंगी, अंगूरी अथवा कोई अन्य देशी दारू की बोतल ले सकते हैं!! उनको मनोरंजन चाहिए और वे मिडल क्लॉस और अमीरों की दुनिया में तीन घंटे के लिए खो जाना चाहते हैं, उनको सन्नी दिओल के जबड़ा तोड़ने (और भी बहुत कुछ तोड़ने) वाले घूँसे देखने पसंद हैं, उनको शाहरूख खान और सलमान खान को सेक्सी अभिनेत्रियों के साथ अर्ध नग्न गाना गाता हुआ देखना पसंद है, वे हसीन बालाओं को देखते हुए कुछ समय के लिए अपने आप को और अपनी दरिद्र दुनिया को भूल मायावी संसार में खो जाना चाहते हैं।

और जो बाकी बीस प्रतिशत लोग हैं सौ रूपए रोज़ाना से अधिक कमाने वाले, वे सिनेमा में सौ-दो सौ रूपए का टिकट लेकर स्लम गरीबी आदि क्यों देखना चाहेंगे?? वे भी अपने मनोरंजन के लिए सिनेमा जाते हैं ताकि अपनी गर्लफ्रेन्ड अथवा परिवार के साथ कुछ समय का मनोरंजन पाकर तीन घंटे के लिए वास्तविक दुनिया से दूर हो सकें। स्लम देखना है तो उसके लिए पैसा क्यों खर्च करेंगे, वह तो वे अपनी हाऊसिंग सोसायटी के पीछे बनी जे.जे.कॉलोनी अथवा झुग्गियों की बस्ती में जाकर भी देख सकते हैं फ्री फोकट में, उसमें क्या मज़ा है? गरीबी, लोगों की दरिद्र फटेहाल हालत देखकर किसी सैडिस्ट (Sadist) का ही मनोरंजन हो सकता है न कि किसी ठीक मानसिक हालत वाले व्यक्ति का। यही कारण है कि ऐसी फिल्में नहीं चलती और इसलिए ऐसी फिल्मों का अभाव है। धालीवाल ऐसी फिल्म बनाएँ तो वे भी किसी स्लम में ही झुग्गी डाले नज़र आएँगे जहाँ उनकी झुग्गी की शोभा बढ़ाने के लिए उनकी फ्लॉप फिल्मों को मिले नेशनल अवार्ड आदि तो होंगे लेकिन खाने की उनकी थाली रिक्त होगी, अवार्ड को चाट के पेट की क्षुधा नहीं शांत होती!! 🙂

मैं कोई बॉलीवुड का खासा प्रशंसक नहीं हूँ, और मैं यह भी कहूँगा कि हालिया समय में फालतू फिल्में ही आ रही हैं जिनको देखने के लिए मैं अपना समय और पैसे बर्बाद नहीं करता, कुछेक अच्छी फिल्में आती हैं यदा कदा जो मैं समझता हूँ कि मेरे देखने लायक हैं जैसे पिछले वर्ष सितंबर में रिलीज़ हुई फिल्म अ वेडनेसडे (A Wednesday)।

लेकिन यदि जीवन की सच्चाई के नाम पर स्लम आदि दिखाने के लिए फिल्म बनती है जस्ट फॉर द सेक ऑफ़ इट तो मैं यकीनन उसको नहीं देखूँगा क्योंकि मैं फिल्में मनोरंजन के लिए देखता हूँ जीवन की सच्चाई के पाठ पढ़ने के लिए नहीं और न ही मानसिक यातना झेलने के लिए। मैं क्यों स्लम देखना चाहूँगा? हर किसी के जीवन में उसकी अपनी कठिनाईयाँ कम नहीं होती, मेरे जीवन में भी हैं मेरे पड़ोसी के जीवन में भी हैं, तो मैं क्यों स्लम देख अपने को मानसिक यातना पहुँचाऊँ? बुरी हालत देख मन को कोई सुकून नहीं पहुँचेगा क्योंकि मैं सैडिस्ट नहीं हूँ और तमाशबीन नहीं हूँ तो इसलिए वह मेरे लिए तमाशा भी नहीं होगा। मन में पीड़ा होगी ऐसा जीवन जी रहे लोगों को देख के यह कदाचित्‌ एक संभावना है, कहने वाले वैसे मुझे स्टोन हार्टिड स्काऊन्ड्रल.. अथवा पत्त्थर दिल कमीना.. भी कहते हैं।

यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, हो सकता है कुछ अन्य लोग भी इनसे इत्तेफ़ाक रखते हों और ऐसी भी संभावना है कि बहुत से लोग इनसे इत्तेफ़ाक नहीं रखते हों। लेकिन मैं धालीवाल के लिखे इस लेख को बेतुका और फालतू ही मानता हूँ – धालीवाल को फिल्म में और डॉक्यूमेन्टरी में और रियैलिटी शो में फर्क पता होना चाहिए। ब्रिटेन में भी स्लम हैं, तो क्या वहाँ के फिल्मकारों को वे नहीं दिखते? हॉलीवुड (Hollywood) जेम्स बांड की अत्याधुनिक फिल्में बनाता है, साइंस फिक्शन बनाता है, सुपर हीरो वाली फिल्में बनाता है, एलियन्स पर फिल्में बनाता है, उनको अमेरिका के स्लमों और पिछड़े इलाकों में रह रहे अंडर प्रिविलेज्ड लोगों आदि की जानकारी नहीं है क्या? मैं नहीं समझता कि इस फिल्म को बनाने वाले ब्रिटिश फिल्मकार डैनी बॉयल (Danny Boyle) अथवा इस फिल्म की कहानी को उपन्यास के रूप में लिखने वाले विकास स्वरूप कोई स्टेटमेन्ट प्रस्तुत करना चाह रहे थे। उनको एक कहानी में संभावना नज़र आई और उनकी वह कहानी चल पड़ी!! तो धालीवाल को इतना सेन्टीमेन्टल होने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे स्वयं फिल्म बनाने का प्रयास कर सकते हैं अपने अनुसार जो उनको लगे कि बॉलीवुड वालों के वश की बात नहीं है और ऐसी दो-तीन फिल्मों को बना लेने के बाद धालीवाल से पूछा जा सकेगा कि कैसे हैं उनके हाल!! 🙂

वैसे एक बात गौर करने लायक है कि ब्रिटिश अख़बार गार्जियन का स्तर गिर रहा है या पहले ही ऐसा गिरा हुआ था कि ऐसे आंडू पांडू लेख उसमें छपने लगे हैं। या फिर सारे ही समझदार लोग उसके लिए लिखते हैं? इसी अख़बार में अभी हाल ही में एक मोहतरमा अरुणधती राय ने भी अपनी बकवास राय छापी थी और अब यह फालतू समय बर्बादी का लेख। एक से बढ़कर एक समझदार लोग यहीं बसे हुए दिखाई देते हैं, जिनको कोई और नहीं पूछता उनको गार्जियन छापता है, जय हो! 🙂