हिन्दी साहित्य के हिमायती और अंग्रेज़ी को कोसने वाले काफ़ी लोग बहस के लिए कहते हैं कि लोग अपनी भाषा की कद्र नहीं करते, अंग्रेज़ी के उपन्यास आदि 400-500 रूपए में भी ले लेते हैं जबकि हिन्दी उपन्यासों का इतना दाम नहीं देना चाहते। आज रिलायंस टाइम आऊट में जाना हुआ; यह रिलायंस की रिटेल चेन के बुकस्टोर्स का नाम है जहाँ किताबें, संगीत और फिल्मों की सीडी-डीवीडी आदि मिलती हैं। मैं ऐसे ही हिन्दी साहित्य वाले भाग में विचर रहा था कि बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यास “भूतनाथ” पर नज़र पड़ी। दरिया गंज के इंडिया बुक हाऊस ने यह वाला संस्करण छापा है, लगभग पाँच सौ पन्नों की किताब और कीमत लगभग पाँच सौ रूपए। पाँच सौ रूपए अधिक नहीं हैं लेकिन इस संस्करण के लिए मैं पचास रूपए से अधिक देना नहीं पसंद करूँगा। क्यों? किताब का कलेवर बेकार है, कागज़ कोई बढ़िया नहीं लगा हुआ, छपाई बिलकुल ऐसी है जैसी सड़क की पटरी पर मिलने वाले 20-30 रूपए के उपन्यासों की होती है। तो जब किताब की गुणवत्ता ऐसी है तो क्यों मैं पब्लिक डोमेन में मौजूद कहानी पर छपी किताब के पाँच सौ रूपए दूँ? ऐसा भी नहीं है कि बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों पर कॉपीराइट है और उसकी रॉयल्टी प्रकाशक को अदा करनी पड़ती हो!! पब्लिक डोमेन में मौजूद अंग्रेज़ी के उपन्यास सौ-सौ रूपए में बिकते हैं और उनका कागज़ और छपाई इससे कई गुणा बेहतर होती है!!

बात हिन्दी की भी नहीं है, ऐसी किताब किसी भी भाषा में हो मैं उसका ऐसा मूल्य कदापि चुकाना पसंद नहीं करूँगा!!

 
पुनश्चः – मैं सभी हिन्दी किताबों को ऐसा नहीं बता रहा हूँ, केवल कुछ ऐसी किताबों के बारे में बात कर रहा हूँ जो कि इस तरह खरीददार के उत्साह पर पानी उड़ेल देती हैं। अन्य भाषाई किताबों की भांति हिन्दी किताबें भी एक से अधिक प्रकाशक छापते हैं और ये हर प्रकार के कलेवर आदि में आती हैं। उनमें से कुछेक ऐसी होती हैं जिनका दाम तो ऊँचा होता है लेकिन कलेवर बदमज़ा और कागज़ तथा छपाई रद्दी होती है।